माई

 

        माई
 
 
 
 
(जरूरी सूचना -
 
यह एक काल्पनिक कृति है। नाम, पात्र, व्यवसाय, घटनाएँ और घटनाएँ लेखक की कल्पना की उपज हैं। वास्तविक व्यक्तियों, जीवित या मृत, या वास्तविक घटनाओं से कोई भी समानता विशुद्ध रूप से संयोग है। )

 
 
 



              


मैं यमुना मैया के किनारे अभी टहल ही रहे थे कि तभी एक गेंद मेरे पैर के पास आकर टकरा गई , मैंने उसे झटके से अपने से दूर कर दिया क्योंकि उस वक्त मेरा मन अकेला रहने का कर रहा था , वो गेंद दूर जाकर एक गड्ढे में जा गिरी | मेरा मन उसे गड्ढे में गिरा कर पता नहीं क्यों उदास हो गया , शायद मैं उसे खुद से उस वक्त जोड़ कर देख रही थी , मैं तेजी से चल कर उसके पास गई और उसे निकाल के बाहर की तरफ फेंक दिया | मैं जैसे ही उठने लगी ; मुझे उस गड्ढे में कागज़ के टुकड़ा गड़ा हुआ दिखा , पता नहीं क्यों पर मेरे मन मे उसे देख कर उत्साह अपने आप जाग गया , मैं जल्दी जल्दी  वहाँ की मिट्टी  हटाने लगी | यमुना किनारे उस दिन कोई नही था , मुझे करीब आधा घण्टा लगा उसे बाहर निकलने में पर अंततः मेहनत सफल हुई ...वहाँ एक डिब्बा था जिसके अंदर कागज़ के कुछ पन्ने थे ... उसे कागज़ भी नही कह सकते बहुत जी कठोर थे उनमें कुछ लिखा भी था , मैने उसे थोड़ा झाड़ कर अपने बैग में रख लिया और जल्दी जल्दी चल दी घर की ओर उसे पढ़ने के लिए ... मैं रास्ते भर उसी के बारे में सोच रही थी , उसकी लिखावट भी काफी अलग थी , काफी पुराना लग रहा था वह , सबसे बड़ी बात आखिर वो वहाँ आया कैसे  होगा ?  ये सभी बात मेरे अंदर चल रही थी मेरे पैरों के चलने के साथ- साथ |

आखिरकार मेरा कमरा आ ही गया , वृंदावन से थोड़ी दूरी पर मेरी हाली में नौकरी लगी थी , नई जगह , नए लोगो के बीच मे मुझे अक्सर अकेला सा लगता था , तभी मैं यमुना किनारे आजाती थी शाम को रोज अक्सर... यहाँ  पर यमुना मैया से अपने दुःख कहती ... एक यही थी यहाँ जो अनजानों के बीच अपनापन महसूस करवाती थी |
मैंने कमरे में आकर जल्दी से मुँह हाथ धोकर कपड़े बदले और खिचड़ी बनाने को रख दिया फिर अपने बैग से वो पन्ने निकलने लगी |
अभी भी उनमें काफी धूल थी , मैंने कपड़े से उन्हें साफ किया और उनको समझने की कोशिश करने लगी |
मुझे वो काफी खड़ी बोली लग रही थी , लिपि तो देवनागिरी ही थी , तो मुझे हल्की हल्की आ रही थी समझने में | पुरी कहानी पढ़ने और समझने में मुझे करीब 4 दिन लग गए क्योंकि कुछ शब्द  काफ़ी कठिन थे , उसके बाद मैंने उन पन्नो की कहानी को एक बार फिर सरल भाषा मे लिखने का प्रयास किया , आखिर वो थी ही इतनी अद्धभुत मैं खुद को रोक ही नहीं पा रही थी , उसे पढ़ने और समझने के बाद मन अपने आप भावुक हो गया था ... और अंतरात्मा शांत |

उन पन्नो पर एक औरत की जीवन की घटना लिखी थी , जिसे वो खुद बया कर रही थी , बीच मे से थोड़े पन्ने फट गए थे उस औरत ...उन्हें औरत कहना अच्छा नही ... मेरा मन उन्हें माई कहने का कर रहा है | अच्छा अब मैं समय न गवांते हुए कहानी आरम्भ करती हूँ , उनकी कहानी को उनके नजरिये से लिखने का प्रयास करते करते मैं तो खुद को ही भूल गयी थी .... !

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कान्हा ...  मेरा कन्नू ... मेरा कृष्णु ... मेरा गुपु ... उसका नाम लेने के सिवा और  कुछ करने का मन तो करता ही नही है !! , मैं तो चाहती हूँ चिल्ला चिल्ला कर सबको बोलूं उसके बारे में , पर कही उसको नजर लग गयी तो !! आखिर वो है ही इतना प्यारा !! उसका नाम लेकर , उसके बारे में सोच कर पता नहीं क्यों मेरी आँखें अपने आप भर जाती है ... मन तो करता है सदैव बस उसे ही देखती रहूँ , बस उसको खिलाती रहूँ ...उसकी सेवा करती रहूँ पर ...!! वो बालक पता नहीं क्यों इतना अद्धभुत है मुझे तो समझ नही आता , मुझे तो वो ईश्वर लगता है ... पर वो भला मुझ जैसी अभागन , पापी से वो क्यों स्नेह रखेंगे | मैंने अपने इष्टदेव हरि की इच्छा को सदैव सर्वप्रिय माना , शादी से पहले जो कुछ हुआ था और बाद जो कुछ हुआ सब अपने कर्मो का फल और उनकी इच्छा मानकर ग्रहण कर लिया ... पर जब पहली बार मैंने कृष्ण को देखा तो सब भूल गयी मैं , न खुद का भान था मुझे न परिवार का |

बचपन में  मै अनाथ हो गयी थी , विरासत के नाम पर थी मेरे पास वो मेरे इष्टदेव श्री हरि की मूर्ति ... मेरे रिश्तेदारों ने मुझे तानों के साथ पाला ,  पर मैं फिर भी खुश थी , क्योंकि मेरे पास एक बूढ़ी दादी रहती थी वो हमेशा मुझसे कहती थीं कि जो मिला है उसमें हमे प्रसन्न रहना चाहिए , हमारे पास तो फिर भी ईश्वर का दिया स्वास्थ्य शरीर है उनका क्या जिनके पास ये नहीं , वो हमेशा कहती शिकायत करके ईश्वर का अपमान मत किया करो उनका धन्यवाद किया करो , जो होता है सब हमारे कर्मो का फल है, ईश्वर तो इतने दयालु है कि अपनी संतान समझ कर हमारे दर्द कम कर देते है  , दुख में भी हमे हमेशा एक शक्ति देते है , पर हम उन्हें ही कोसते है !|
मुझे उनकी बात सही लगती क्योंकि भले ही मुझे कितना भी सुन्ना पड़े पर मेरे पास वहाँ अच्छी सहेलियां , और दादी का साथ था , इसके लिए मैं हमेशा धन्यवाद करती ईश्वर को , मेरे इष्टदेव ने हमेशा मुझे हिम्मत दी है भीतर से वो साथ न होकर भी हर मोड़ पर साथ थे |
मेरे रिश्तेदारों ने मिलजुलकर जब मैं सोलह वर्ष की हुई तो मेरी शादी मथुरा के गाँव मे हो गयी , मैं खुश थी कि नई शुरुआत हुई है मेरे जीवन की , शादी के दो साल तक तो सब ठीक रहा ..मेरी सास माँ थोड़ी कठोर थी पर मेरी जिंदगी पहले के मुकाबले काफी अच्छी चल रही थी , मेरे पतिदेव जी से बात करने की मेरी ज्यादा हिम्मत नही होती थी , वो थोड़े गर्म सौभाव के थे , ज्यातर काम के सिलसिले में बाहर ही रहते थे |
शादी के दो साल बाद तक भी जब मैं माँ नहीं बन पाई तो मेरे ससुराल वालो का सौभाव मेरे लिए रुखा सा हो गया , मैं चुपचाप काम करती सारा ! उन्होंने कभी कुछ सामने से तो नही कहा परन्तु उनका व्हवाहर काफी कुछ कह रहा था , आसपास के लोग भी अब मुझसे दूर रहते , मुझे सब भांझ कहकर अलग रखते ... गांव में महाराज कंस का आतंक बहुत हो रहा था तो  हम लोग भी गाँव छोड़ने के लिए वहाँ से निकलने को तैयार हो गए , मुझे लगा शायद नई जगह जाकर सब ठीक हो जाए पर रास्ते भर मुझे रूखा व्यवहार देखने को मिल रहा था |
हम लोग वृंदावन नामक गाँव मे आकर रुक गए वो नया नया बस रहा था , सब सामान लेकर हमारे गाँव के लोग वहां के मुखिया श्री नंद जी के घर के बाहर उनके आने का इंतज़ार कर रहे थे , तभी वहां बालक की रोने की आवाज़ आने लगी... मेरे मन को वो पता नहीं क्यों अपनी ओर खींच रही थी , हम लोग को नन्द जी ने अंदर बुलाया  अपने आंगन का दरवाजा खोल कर , जैसे ही मैं अंदर जाने को हुई मेरे पड़ोसी ने मुझे ये कहकर रोके दिया कि घर मे नन्हा बालक है इनके , तुम तो बांझ हो दूर रहना ... कही कुछ अप्सगुन हो गया तो ...!!
मेरा मन टूट गया था , आँखों में आँशु भर आए थे , पहली बार मुझे खुद से नफरत महसूस हो रही थी , आज तानो ने पहली बार मेरे हॄदय को चीर कर रख दिया था |

अपने आँशु छिपाने के लिए मैं अलग हठ गयी , सब लोग अंदर जा चुके थे , मैं दरवाजे के बाहर थी | तभी वहां एक बालक दौड़ता हुआ बाहर आगया दरवाजे से, उसकी उम्र कुछ तीन चार वर्ष के पास होगी ... उसे देख न जाने क्यों मेरी स्वास ही अटक गई , वो इतना कोमल प्रतीत हो रहा था मानो कोई पुष्प हो ... तेज देख तो सूर्य ही समा जाए ..., वाणी उसकी चंद्र के सामान शीतल थी वो मेरी तरफ ही आ रहा था ,  मेरी धड़कने तेज होती जा रही थी , नयन एकटक उस बालक जो देखते जा रहे थे , उसके पीछे से उसके और मित्र भी आगये और उसे अपने साथ ले गए , मेरा मन उसे रोकने का कर रहा था ...पर मैं उस वक्त कुछ बोल नहीं पा रही थी !! वो पीछे मुड़ मुझे देख कर मुस्कुरा दिया और माई जल्दी आना मिलने दोबारा अभी जाना है  मुझे! यह कहकर आगे बढ़ गया , उसकी मीठी सी प्यारी सी वाणी में से अपने लिए माई शब्द सुन कर मेरे अंदर का ममता भाव जाग गया , मैं उस क्षण सब कुछ भूल गयी थी सिवाय उसके !!...
मुझे अब भी याद नही है कब मैं घर वापिस आई और कब मैं सोई , बस याद थी तो उसके शब्द और बस वो |

मेरा मन उससे मिलने के लिए मचल रहा था , पर समाज की बेड़ियों ने मुझे जकड़ा हुआ था , मुझे उसका नाम नही पता था , इसे पता करने के लिए मैंने सास माँ से घुमा फिरा कर पूछा ... उनके मुँह से कृष्ण शब्द सुन कर मन को अद्धभुत सी शांति मिल रही थी |

मैने उसे कन्नू नाम दे दिया , मैं रात दिन बस उसकी कल्पना करती , उसके लिए हॄदय में ममता भाव जाग गया था , मेरी मन मे बहुत इच्छा थी उसे गले लगाने की , उसे खिलाने की , उसकी सेवा करने की ... पर मुझे कोई उसके पास जाने नही देता  , वो यमुना किनारे आता था रोज खेलने मैं चोरी छिपे उसे देखा करती ... हर बार मेरी आँखें भर जाती , हॄदय की गति बड़ जाती |

जैसे जैसे दिन बीत रहे थे मेरे हॄदय में उसके लिए मातृ प्रेम बढ़ता ही जा रहा था , मैं अक्सर सोचती काश वो एक बार मेरी गोद मे आकर पुनः मुझे माई बोलता , घर के कामों में अब जी नही लगता था मेरा , न ताने लगते न सास की डाँठ , बस लगती थी वो मेरे कन्नू की चिंता ! ...
खाना खाते समय अक्सर यही सोचती की मेरे कन्नू ने खाया होगा की नही , मुझे ज्ञात था कि यसोदा जी उसका बहुत अच्छे से ध्यान रखती हूँगी ,पर एक माँ का हृदय अपने सामने देख कर ही शांत होता है ...!!

एक बार सोने से पहले मैं कन्नू के बारे में सोच रही थी तभी मेरे अंतर्मन के सामने वो सच मे आ गया  ... पता नही क्यों हर बार की तरह इस बार भी मेरा हॄदय तेजी से दौड़ने लगा , नयन स्वतः ही भरने लगे , स्वास अटक सी गयी और समय थम सा गया ... वो यमुना किनारे पेड़ के नीचे बैठा अपने नयनो को बंद करा लेता हुआ था , मैं उसके पास आकर बैठ गयी मेरा मन उसे अपने आँचल में छिपाने कर रहा था , उसे सीने से लगाने को मचल रही थी आत्मा ,   .. पर मुझे डर लग रहा था कही कन्नू की नींद मेरी वजह से खुल न जाए , मैंने उसके पैर दबाने के लिए जैसे ही अपने हाथ आगे किए ... मेरे मन मे बार बार उसकी कोमलता का विचार आ रहा था कही मेरे कठोर हाथो से उसके कोमल पैर दर्द न करने लग जाए , मैं रोने लगी कि कितनी दुर्भाग्यशाली हुँ मैं , मैंने आसपास के पत्तो को इक्कठा कर पंखा बनाया और उसे करने लगी  ... मेरे अंदर उसको छूने की हिम्मत ही नहीं आ रही थी , बस आँखों से आँसू की धारा बहती जा रही थी , तभी मेरे आँसू की बूंद उसके पैरों मे जा गिरी ...  उसने हल्के से आँखे खोली ...
और खोलते ही बोला माई तू अपने पुत्र से क्यों मिलने नही आती है ... आज मैं तुझसे मिलने आया तो तू रो रही है ... क्या मैं इतना बुरा हुँ ?... ये बोलते हुए उसने मासूम सा चेहरा बना लिया , फिर पुनः बोला ... अपने पुत्र को तुम क्या भूखा रखोगी ... मुझे भूख लग रही है ... मुझे कुछ खिलाओगी नहीं किया ...? इतना कहकर मेरी आँखों के सामने से सब ओझल हो गया , मैं जब उठी तो मैंने अपनी आँखें नम पाई , मैं तुरन्त दौड़ कर रसोई की ओर गयी औऱ खाना बनाने लगी अपने कन्नू के लिए ... मैं अपना होश खो चुकी थी मुझे नही पता था कि क्या समय हो रहा है , वो सच मे आएगा या नहीं , मैं बस उसकी चिंता में लगी हुई थी ... मुझे सबसे पहले चावल दिखे ... मेरे मन मे खीर बनाने की इच्छा जाग गयी ... मैं कन्नू का विचार करते करते मदहोश होकर खीर बनाने लगी ... मुझे उस वक्त किसी भी चीज का होश नहीं था बस कन्नू की चिंता थी |

मुझे नहीं पता कब सुबह हो गयी और कब मेरी खीर बन गयी ... मैं खीर बनाकर सोच ही रही थी कि कही कोई कमी तो नहीं रह गयी , तभी वहाँ मेरी सास मुझे बुलाने के लिए आगयी , ...ये आज सुबह सुबह तूने कैसी खीर बना दी कि पूरा गाँव ही महक गया है ... और जरूरत क्या पड़ गयी तेरे को ... देख तेरी वजह से बाहर भीड़ हो गयी है ... नंद जी का लल्ला आकर देख तो क्या हंगामा कर रहा है ...!!
उनका ये कहना ही था कि मेरी आँखें चमक गयी , मैंने इसके आगे कुछ नहीं सुना ...  एक छोटे से पतीले में खीर भर ... भाग कर दरवाजे की ओर गयी , वहाँ मेरा कन्नू खड़ा था गाँव के बाकी जनों के साथ , यसोदा जी और नन्द जी भी ठगे उसके साथ ... मैं कन्नू को देख रोने लगी ... वो दौड़ता हुआ मेरे पास आया और मेरे आँसू पूछते हुए कहने लगा ... " माई अब कितना रोएगी , देख आगया मैं तेरे पास!! तूने अबतक मुझे भूखा रखा है , कल तो तूने मुझको छुआ भी नही !!"
मेरे हाथों को छूते हुए बोला - " तेरे हाथ देख तो कितने कोमल है , इनसे मुझे दर्द नहीं आराम मिलेगा ... !"
ये कहकर वो मेरे गले लग गया , मेरा हृदय , स्वास सभी रुक चुकी थी ... मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था !,
मैं अश्रु बहाती जा रही थी ... आज लग रहा था मानो जन्मों की तपस्या पूरी हुई हो !!

गाँव वाले सब हैरान थे , यसोदा जी ने मुझे बताया कि सुबह से ही ये खीर खाने की जिद्द कर रहा था और घर मे अचानक दूध और चावल खत्म हो गए , गौ माता ने भी आज दूध नही दिया , आसपास भी यही हाल था ... आपके घर से खीर की खुशभु आ रही थी तो ये जिद्द करके यहाँ आ गया !! |

उनकी बात को काटते हुए कन्नू खीर की जिद्द करने लगा ... उसने कटोरा मेरे आगे रखा ... मैने अपने कन्नू को अपने हाथों से खीर खिलाई ... मैं नहीं बता सकती ... उस वक्त मुझे कैसा लग रहा था ... खिलाते-खिलाते मैं पता नही क्यों रो रही थी !! , उसने अपने नन्हे हाथों से एक निवाला मेरे मुँह में डाला ... मुझे अल्लोलिक सा अनुभव हो रहा था ... मेरा चित्त मेरे साथ ही नही था ... मुझे खुद का भान नही था !!
मैं कन्नू को बस देखी जा रही थी ... मैंने उसे अपने सीने से लगाया ... वो हल्के से मेरे कान मे बोला " माई अब तो आपके कन्नू की बहन आने वाली है ... मुझसे फिर कही आप प्यार करना कम तो नही कर दोगी !!"

मैंने ये सुनते ही उसको खुद से हल्के से अलग किया और उसकी आँखों मे आश्चर्यजनक दृष्टि से देखा ... वो मुस्कुरा दिया और पता नही क्यों उसके मुस्कुराते ही मुझे चक्कर आने लगे ... मुझे नही याद उसके बाद क्या हुआ ... मैं कमरे में थी वैध जी मुझे देखने आए थे ...आसपास सब प्रसन्न थे , मुझे पता लगा कि मैं पेट से हुँ , मुझे बार-बार कन्नू के शब्द और उसकी वो मुस्कान याद आ रही थी , मन मे कई प्रश्न भी थे !!
मैंने अपनी सास माँ से उसके बारे में पूछा ... " वो मुस्कुरा कर बोली कि यसोदा का लल्ला तो सच मे जादूगर है... जबसे उसके कदम यहाँ पधारे है घर मे तो खुशियां ही आगयी ...!!"
मेरे आँखों भर आईं ... मेरा लाल तो आया ही मेरी गोद मे साथ मे मुझको बिटिया भी दे गया उपहार में ... मुझ अभागन के भाग भर दिए उसने तो ... न जाने उसे कल रात की मेरे सपने के बारे में पता है ... उसे कैसे पता मैं उसे कन्नू नाम से बुलाती हुँ ... उसे कैसे पता है मैं पेट से हुँ !! मन मे कई प्रश्न थे ... उत्तर केवल वो ही था !! कौन है आखिर वो ... अद्भुत ... विचित्र ... आकर्षक ... मेरे लिए तो मेरा कन्नू ही है ...!
मेरी आत्मा ने एक बार पुनः कन्नू मेरे लाल पुकारा ..." और शरीर अपनी सुध खोकर उसकी ओर भागने लगा ...मैं बाहर की ओर जाने लगी मेरे घरवाले मेरे पीछे !!||





●●

उन पन्नो में बस इतनी ही कहानी थी , न जाने आगे क्या हुआ होगा? , और बाकी के पन्ने आखिर गए कहाँ हुंगे ?
मेरे मन मे भी कई प्रश्न थे और उत्तर इनका एक ही था कृष्ण !! मैं वृंदावन तो आ गयी थी पर यहाँ के राजा से अभी नहीं मिली थी शायद अपने प्रश्नों के बहाने से ही उनका दीदार कर लू , कल की छुट्टी मैंने उनसे मिलने के लिए ले ली है , बस अब उनके दीदार की ही प्रतीक्षा है | उनको मुझे मिलकर धन्यवाद भी कहना है कि उन्होंने इतनी प्यारी कथा से अवगत कराया और अपने प्रेम का पान कराया !! जय हो बांकेबिहारी लाल की !! ||

© राधिका कृष्णसखी


राधे राधे 🙏

धन्यवाद 🌼🙏🍫


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