प्रिय अजनबी

 प्रिय अजनबी ,



मुझे तुम्हारा नाम पता है ... पर मैं नहीं लिखना चाहती कही गलती से इसको तुम्हारे सिवा अगर कोई और पढ़ लेगा तो तुम्हारे बारे में जाने क्या क्या सोचे ... ऐसा नहीं है मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है ... मुझे तुमसे शिकायत तो है पर मैं ये नहीं चाहती कोई और तुमसे करे !! |

रिश्ता हमारा है तो हक भी मुझे ही है केवल तुमसे प्रश्न करने का क्यों ? 

तुमको पता है भले ही मैं अपने से तुम्हारे बारे में कितने भी प्रश्न करलूँ पर तुमको देखते ही मैं मौन हो जाऊँगी ... मुझे वो तुम्हारी आँखों मे देख बातें करने की आदत बहुत अच्छी लगी थी ... पता है इसीलिए मैं आज भी तुम्हारी छवि से आँखों ही आँखों मे बात करने का प्रयास करती हूँ... पर अब तुम पहले की तरह मुस्कुराते नहीं वो अपनी कोमल सी पलके झपकाते हुए मुझे देखते नहीं हो  ... जिससे मुझे तुम्हारा हाँ या न पता चल सके

तुमको याद है जब तुम पहली बार मुझसे मिलने आए थे...मैं तो तुमको छूने में डर रही थी ... मुझे लगता कही कही मेरा ये कठोर तन तुमको न चुभ जाए... मुझे तो तुम्हारे ये केश ... फूलो से लगते ... सोचती तुमको देख कही मुझसे टूट गए छूते हुए तो ... इसीलिए पहली दफा तुमको देख मैं डर गई थी ... और तुम तो मेरे पास आए ही जा रहे थे ... मुझे इतनी लाज आ रही थी कि मैं आँखे नीची करके पीछे की ओर बस चली जा रही थी ... 

और मुझे पता ही नहीं चला कब तुम मेरे पीछे खड़े हो गए ... तुमसे मैं जब टकराई तो तुमने मुझे अपने हृदय से लगा लिया ... मानो तुम बोल रहे थे कि तो क्या हुआ तुम्हें अगर डर लग रहा मैं हूँ न ... इस डर को दूर करने को... तुम नहीं स्पर्श कर सकती तो क्या हुआ मैं तो  तुमको छू सकता हूँ न !! 


मैं जब भी तुम्हारे चेहरे को पास से देखती तो मुझे लगता मानो सारे प्रकति इसमें समाई हुई है ... मैं अक्सर तुमको याद हैं न...आँख बंद कर तुम्हारे चेहरे में अपना हाथ फेरती ताकि मेरे सब अहसासों में तुम बस जाओ |

तुमको याद है जो हम छुपते छुपाते एक दूसरे से एक दूसरे से मिलते थे ... तुम हर बार कोई खेल खेलते ताकि मैं तुमको ढूंढते हुए मैं तुमसे टकरा जाऊ क्योंकि तुमको पता होता है कि मुझे डर लगता है तुमको स्पर्श करने में ! |

तुमको पता है जब तुम मेरे बार बार झुल्फे पीछे करते करते तंग हो जाते थे और आँखे दिख कर मुझसे कहते कि काट दो इन बालों को ... पता है मैं जान भुझ कर ही उनको आगे करती तुमको मुझे गुस्सा दिलाना पसंद है ... और जब तुम उस गुस्से में मुझ पर हक जताते थे तो मैं बता नहीं सकती मुझे कैसा लगता था !! |

तुमको वो याद है ? जब तुम मेरे लिए पायल लाए थे ...? और मुझे बिना कुछ बताए तुमने पत्थर पर बिठाया और तुम मेरे पैरों में बांधने लगे ... फिर मैं हड़बड़ा कर तुमको रोकने लगी थी और तुमने मुझे वो अपनी सी अपने पन वाली गुस्से वाली आँखों से देखा ...तो मैं चुपचाप बैठ गयी ... और फिर तुम पहनाने के बाद जब मेरे आँखों मे देखते हुए बोले थे कि क्या मैं तुमको अपना नहीं मानती हो... पराया समझती हूँ ? जो मैं तुमको पायल भी नहीं पहना सकता !! | 

ये पत्र और तुम्हारे साथ बिताए हुए पल शायद लिखते लिखते और याद करते करते शायद मैं न थक जाऊँ ... पर मुझे रुकना होगा क्योंकि कुछ अहसास मैं लिख नहीं सकती हूँ वो बस खुद के अंदर दबाना चाहती हूँ ताकि मेरे रोम रोम में केवल तुम बस जाओ ... और तुम्हारे साथ बिताए हर पल उसके साथ |

ये पत्र में उसी पत्थर के नीचे रख रही हूँ जिसमे तुम बैठ मेरी प्रतीक्षा करते थे गंगा किनारे  ... और इसके सहारे तुम मुझे नाव में चढ़ाते थे?? याद है न... कैसे मैं डरकर तुमको पकड़ती थी और तुम हँसने लगते ... पर मुझे नाव से नही तुमसे दूर जाने से डर लगता था!!

तुम्हारे साथ नाव में बैठ लगता था मानो किसी और दुनिया मे हूँ मैं ... और तुम्हारी वो बातें सुनना और जब तुम मुझसे पूछते की आज कितना याद किया मुझे ...और मेरा हँस कर कहना बिल्कुल भी नहीं ...और फिर वो तुम्हारा मुझे घूरना ... पता है ...आज भी यही कहूँगी मुझे तुम्हारी बिल्कुल याद नहीं आती ... क्यों करुँ तुमको याद ... तुम करते हो मूझको याद ? जो मैं करुँ ? 



जब तुम अचानक से बदल गए थे ... पता नहीं वो अचानक से था या फिर क्या था ... क्योंकि तुम्हारी वो आँखे झूठ नहीं बोल पाती है ... तब मैंने तुमसे आखिरी बार बोला था यही की क्यों करुँ तुमको याद ... तुम करते हो मूझको याद ? जो मैं करुँ ? ... और इस बार तुम घूरने जगह मुस्कुराने लगे थे ... तो मुझे अपना उत्तर मिल था |


तुमको पता है तुमको किसी और के साथ देखना कैसा था मेरे लिए ?? मुझे कई बार लगता तुम जैसे जानभुझ कर करते थे ऐसा ... जब तुम उसका हाथ पकड़ते थे तो तुम्हे क्या लगता है मुझे पता नही चलता था कि तुम मुझे तिरछी नजरो से देखते थे ... और जब तुमने उसके लिए भोजन बनाया था तो मूझको नही पता क्या उसके बाद मैंने जब नहीं खाया तो तुम भी भूखे थे ...फिर कैसे तुमने मुझे अपने साथ खिलाने के खेल खेला था ...!! 




आखिरी बार मैं फिर से तुम्हारे साथ नाव में बैठना चाहती थी ... जब तुम जाने वाले थे यहाँ से और तुम उसको उसी पत्थर से टिका कर नाव में बिठाया था और तुम बिना पीछे मुड़े उसके साथ चल दिए ... मैं उसी पत्थर पर बैठ तुमको किसी के साथ जाते हुए देख रही थी ... और अभी भी पता है वहीं ही बैठी हूँ इसी इंतज़ार में की तुम नाव में बैठ आओगे मुझे लेने जैसे पहले आते थे ...शायद इसीलिए नहीं तुमने मेरी आखिरी इच्छा पूरी नहीं कि थी न ?? 

ताकि ये मुलाकात हमारी आखिरी न हो...

कभी कभी लगता है तुम भी मेरे जाने के बाद मुझे याद करने आते होगे यहाँ ? क्यों तुम नही करते मुझे याद क्या ?



बाकी बातें मैं तुमसे मिलकर करूँगी ... क्योंकि फिर तुम मुझसे कहोगे ... तुम देखना बन्द करो कुछ कहना शुरू करो अब ... तो बाकी बाते हमारे मिलने के बाद तुमको बताऊँगी क्योंकि शिकायत आमने सामने से ही ठीक से होगी  ... सुनो ... तुम अपना ध्यान रखना और मेरी चिंता मत करना ... बस तुम्हारे बिना थोड़ी कमज़ोर होगयी हुँ बाकी सब ठीक है ... अब ये सुन कर तुम मत हो जाना परेशान वो अगर अब तुम अपने हाथों से नहीं खिलाओगे तो कमज़ोरी तो आ ही जाएगी न ...!! 



देखो आज पूर्णिमा का चाँद है ... और मैं ये पत्र इसकी रखवाली में यहाँ रख कर जा रही हूँ ... जब भी समय मिले तुम आ जाना ... !! और मुस्कुराना मत भूलना ... तुम्हारी मुस्कान मोहित करती है मन को मोहन जैसे ... और इसको देख पता ही नहीं चलता कि मैं तुमसे अलग हूँ ...इसको याद कर दूरी मानो मिट सी जाती है ... और ...


बस मेरे हाथ नही रुक रहे ... पता नहीं तुम इसको पढ़ते हुए क्या सोचोगे ? बस इतना ही कहूँगी बस तुम अपना ध्यान रखना परेशान मत होना ... मेरे साथ यहाँ बहुत साथी है जिनसे मैं तुम्हारे बारे में अक्सर बात करती हूँ ... जैसे कि ये पत्थर जिस पर मैं बैठी हुँ ...ये वृक्ष जो झूम झूम कर मुझसे ततुम्हारी तारीफ करता है ...जैसे ही जल ... जो तुम्हारे स्पर्श को संभाल कर रखा हुआ है !! 


बाकी अभी भी बहुत है मेरे पास जिनसे मैं तुम्हारी बातें करती हूँ बस तुम ही नहीं हो... पर कोई नहीं मुझे विश्वास है तुम जल्द आओगे ... फिर से मेरे बालों में फूल लगा कर मुझसे कहोगे ... और फिर मैं मुस्कुरा दूंगी ! 



तुम्हारी ...

नाम तो तुम्हारे अधर मेरा अपने साथ ले गए है ... अब बस जैसी भी हुँ तुम्हारी ही हुँ ||




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