प्रेम
कितना अजीब है ... जिसको हम खोजने के लिए हर जगह घूमते है ... जिसके लिए तड़पते है जिसे इतना पुकारते है ... उसको हम बस जहाँ खोजना है वहाँ नहीं ढूंढते है ... प्रेम प्रेम ... बोलते है न उसको पर फिर भी प्रेम नहीं कर पाते है क्योंकि दीवार जो लगा देते है उसके और हमारे बीच एक दीवार परमात्मा और आत्मा की... दिल उससे कितना भी करले प्रेम पर मन उस तक आवाज जाने नही देता है प्रेम की पुकार उस तक कैसे पहुँच सकती है ? जब तक मन को ये खटकेगा की वो ईश्वर है तब तक वो प्रेमी कैसे बन सकता है हमारा ? क्योंकि बचपन से ही हमारे मन मे प्रेम का मतलब है दो संसारी वस्तु का साथ होना चाहे वो प्रेम माँ बेटे से हो ... भाई बहन से ... लड़की लड़के से... इंसान प्रकृति से ... पर जब बात परमात्मा की आती है तो हम उनको खुद से अलग देखते है... हम ये भूल जाते है की जिन्होंने ये संसार बनाया है वो भी इस संसार का ही अहम हिस्सा है ... हम उनको संसारी आँखों से देखने प्रयास करते है ये मानते हुए की वो हम से अलग है ... जो पहले से ब्रह्मण्ड के हर कण में घुला हुआ है ... आखिर वो कैसे संसार से अलग हो सकता ह...