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Showing posts from April, 2024

प्रेम

  कितना अजीब है ... जिसको हम खोजने के लिए हर जगह घूमते है ... जिसके लिए तड़पते है जिसे इतना पुकारते है ... उसको हम बस जहाँ खोजना है वहाँ नहीं ढूंढते है ... प्रेम प्रेम ... बोलते है न उसको पर फिर भी प्रेम नहीं कर पाते है क्योंकि दीवार जो लगा देते है उसके और हमारे बीच एक दीवार परमात्मा और आत्मा की... दिल उससे कितना भी करले प्रेम पर मन उस तक आवाज जाने नही देता है प्रेम की पुकार उस तक कैसे पहुँच सकती है ? जब तक मन को ये खटकेगा की वो ईश्वर है तब तक वो प्रेमी कैसे बन सकता है हमारा ? क्योंकि बचपन से ही हमारे मन मे प्रेम का मतलब है दो संसारी वस्तु का साथ होना चाहे वो प्रेम माँ बेटे से हो ... भाई बहन से ... लड़की लड़के से... इंसान प्रकृति से ... पर जब बात परमात्मा की आती है तो हम उनको खुद से अलग देखते है... हम ये भूल जाते है की जिन्होंने ये संसार बनाया है वो भी इस संसार का ही अहम हिस्सा है ... हम उनको संसारी आँखों से देखने प्रयास करते है ये मानते हुए की वो हम से अलग है ... जो पहले से ब्रह्मण्ड के हर कण में घुला हुआ है ... आखिर वो कैसे संसार से अलग हो सकता ह...

" कृष्ण की लीला "

           " कृष्ण की लीला.... " कृष्ण ... कहाँ हो तुम !! श्रेया एक बार फिर बोल पड़ी , दिन में न जाने वो ये बात खुद से पूछती | उसके मन मे कृष्ण के लिए जो भाव था वो किसी को भी नहीं बता सकती थी ... शायद वो सोचती थी कि लोग इसको समझेंगे या नहीं !! इसीलिए जब भी कृष्ण का नाम उसे कही सुनाई देता तो वो चुपचाप मुस्कुरा देती ... ऐसी मुस्कान देती मानो उसके सामने सच के कृष्ण आगये हो | अपने मन मे भाव अक्सर श्रेया एक डायरी में कैद रखती थी ... क्योंकि उसे लिखते हुए विश्वास रहता था कि कृष्ण जरूर पढ़ रहा होगा ...कितनी बार तो वो मुस्कुरा देती लिखते लिखते ; न जाने क्या क्या लिखती वो उसमें , किसी को नहीं बताती थी | कितनी बार तो डायरी उसकी घरवालों के हाथ लगने वाली थी , पर हर बार न जाने कैसे वो बच जाती आने से ... शायद उसके साथ उसके और डायरी की बीच की बात कोई और भी बचाना चाहता था | युही अपने जीवन मे और उम्र में आगे बढ़ते हुए श्रेया के दिन तो बीत रहे थे पर आज भी पुकार उसकी वही थी ... कृष्ण तुम कहाँ हो !!? | एक बार श्रेया अपने 24 जन्मदिन के दिन मंदिर से आरही थी , इस बार भी जाने क्या मा...

रमणा सखी

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  हे कृष्ण ...                 तुमको प्रिय लिखने का साहस नहीं है अभी मेरे अंदर ... क्योंकि प्रिय अपना तुम्हें किस हक से कहूँ  मुझे तो ये भी नहीं पता !! ... पर फिर भी ये पत्र तुमको इसीलिए लिख रही हूँ क्योंकि अब मुझसे रहा नही जाता है ... मैं अब और बोझ नहीं रख सकती मन मे ... और न ही पछतावा भी ... कल मैं यहाँ से हमेशा हमेशा के लिये जा रही हूँ मुझे पता ही नहीं चला कैसे इतने समय यहाँ बीत गया और अब अंतिम दिन भी आगया | मैं ये जानती हूँ हम कभी नहीं मिल सकते क्योंकि मिलने के लिए पहले बराबर का होना होता है न... कहाँ तुम राजकुमार और मैं ... तुमको तो शायद याद भी नहीं होगी हमारी पहली मुलाकात ... पता है जब एक बैलगाड़ी रास्ता भटक गई थी और तुम खुद उसमे बैठ रास्ता बताने आगये थे ... मैं उसी में बैठी तुमको पीछे से छुपके ताक रही थी ... तुम्हारी आवाज जब मैंने पहली बार सुनी तो ऐसा लग रहा था मानो मैं कोई शहद को जिव्हा की जगह कानो में मिला रही हूँ ... तुम्हारा वो खिल खिलाना मुझे वसन्त के समान लग रहा था ऐसा लगता मानो आसमान से पुष्पो की वर्षा हो रही हो ... तुम्हारा...