श्यामा
|| श्यामा || आज भी मैनें और दिनों के भांति अधूरा ही श्रृंगार किया हुआ था , इस आस में शायद वो इसे पूरा करने के बहाने से ही मिलने तो आएंगे ही ! | हाँ !! दिन तो काफी हो चुके थे ... पर फिर भी मन मे आस थी ही उनके आने की , मैंने रोज की तरह ही उनके लिए भोजन बनाया और बैठ गयी हमारे छोटे से घर को सजाने के लिए , अभी सजावट चल ही रही थी कि तभी मेरी नजर उनके कंगन पर पड़ी जो एक कोने में अकेला पड़ा मुझे ताक रहा था ... मैं समझ चुकी थी फिर से ये उनकी ही करामात होगी , हल्की सी मुस्कान के साथ मैं उनकी ओर मुड़ी | " अब क्या नई लीला करनी है तुम्हें !! " मैंने बनावटी गुस्से सा मुँह बनाते हुए उनसे पूछा ... हाँ औरो के लिए होंगे वो मूर्ती पर मेरे लिए तो संसार ही थे , मन कई बार सवाल भी करता उनके अस्तिव पर लेकिन आत्मा अपने विश्वास से हर बार उसे हरा ही देती !! खैर मुझे औरो से क्या मतलब था ! बात तो यहाँ उनकी और मेरी हो रही थी ... " अच्छा !! तो फिर तुम्हे नहीं देना है उत्तर , ठीक है कुछ मत कहो ... याद रखना पर तुम मैं तुमसे अब भी नाराज़ हुँ " मुँह फिरते हुए मैं बोली | ...